

अंग्रेजी का शब्द taste काफ़ी गूढ़ है| इसमें हिन्दी और उर्दू के काफी अक्षर समा सकते हैं| स्वाद, ज़ायका, रूचि, लज्ज़त, मज़ा, झुकाव, पर फिर भी ये उन सबसे बड़ा है| अंग्रेजी के शब्द aesthetic का हिन्दी अर्थ- सौन्दर्यबोध, taste पर भी थोड़ा थोड़ा overlap यानि अधिव्यापित होता है| सौन्दर्यबोध तो निजी बात है, अपने अपने मूल्य हैं| किसी को cotton पसंद है तो किसी को silk, देशी-विदेशी, शहर-देहात, सब अपने अपने विचारों और पसंद नापसंद से चीजें और धारणाओं को चुनते हैं|
लखनऊ में एक गंगा जमुनी तहज़ीब है, मिली जुली तहज़ीब| Elite में commoner मिल गया, अवधी में उर्दू मिल गई | हिन्दू में मुसलमान मिल गया, सबकुछ खिल्त-मिल्त यानी mix हो गया| ऐसी तहज़ीब से निकलकर मैं Design पढ़ने NID गया| अब व्यक्तिगत taste का मुझे कोई औचित्य नहीं दिखा वहां| Bunuel, Godard, Tarkovsky, Fellini अच्छे लगे बहुत, appealing लगे, पर शुरुआत में कुछ कम ही समझ आए| उस वक़्त मैं common man ही था और उसकी व्यथा मुझे समझ आई| जब पढ़ लिख कर अपने कथानक बनाए तो उनमें मैंने गज़ल और ठुमरी ठूंस दी| मैं कुछ भी कर के इस गंगा जमुनी तहज़ीब के लिए ही कहानियां बनाता रहा| ठुमरी या गज़ल, क़व्वाली को सुनने, बर्दाश्त करने की क्षमता शायद western audience में न हो इसलिए इनकी शायद global appeal भी न हो| पर हमारी art तो हमसे ही निकालनी चाहिए ना?
लखनऊ में तहज़ीब घरों में क़ैद नहीं है| वो सड़कों पर भी मिलती है| तांगेवाले, सब्जीवाले, दुकानदारों की sense of humour काफ़ी तेज़ है| ऐसा कोई मज़ाक नहीं जो सिर्फ educated लोगों को ही समझ आएगा| जो बात bourgeoise को समझ आइ उसे गांववाला भी बूझवा| इसे मैं inclusive taste कहता हूं| हज़रत अमीर खुसरो इसी गंगा जमुनी तहज़ीब का हिस्सा थे| मेलों-ठेलों के रसिया थे| फ़ारसी में शेर कहते थे तो अवधी में गीत, ठुमरी, पहेलियां भी| उन्होंने एक नज़्म हिन्दू और मुसलमान cultures को पास लाने के लिए लिखी है| देखिये कि कैसे दोनों गले मिल गए हैं इस रचना में| इसमें एक लाइन फ़ारसी में है और एक अवधी में –
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ
न लेहू काहे लगाए छतियाँ
कृष्ण बिहारी नूर, लखनऊ के शायर, सादा शेर कहते थे| हल्के फुल्के हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों को चुनकर वो भारी भरकम बातें कहते रहे|
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
जुर्म क्या है पता ही नहीं
ज़िंदगी मौत ही तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
चाहे सोने के frame में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं
उन्होंने साबित कर दिया कि गहरी बात, भारी भरकम शब्दों की मोहताज नहीं| जैसे सहज योग है| वो योग जो आप कर सकें बिना एक दो हड्डी तोड़े| कला अगर एक आसान पहेली हो, तो सबके पल्ले पड़ सकती है, बिना अक़ल की हड्डी तोड़े| समाज के हर वर्ग को जोड़ने का काम करती है कला| संगीत, नाटक, फिल्म, कहानियां सबको जोड़ती हैं| इसका मतलब ये तो नहीं कि ढिशूम ढिशूम ही हो फिल्मों में? जिस taste को हम आम आदमी का taste, lowest common denominator, dumb it down जैसे निम्न शब्दों से परिभाषित करते हैं, क्या उसे नीचे गिराना ज़रूरी है? दरअसल, आम आदमी का taste, unsophisticated नहीं, uncomplicated है| आसान की गयी कला और ऊंची हो जाती है| जैसे गाने poetry का एक आसन रूप हैं| इनकी lyrics कभी कभी poetry से भी बढ़कर होती हैं| आनंद पिक्चर का ये गाना मन और मृत्यु के बारे में ये कहता है –
कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों भरा ही
चला जाए सपनों से आगे कहां
ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय
हमारे रोजमर्रा के culture में गानों का एक महत्वपूर्ण स्थान है| बच्चे होने पर सोहर, शादी, बिदाई, सब में गीत गाए जाते हैं| धार्मिक ग्रन्थ भी चौपाई, दोहे के form में हैं, जिन्हें गाया जा सकता है| गाना कहानी का हिस्सा बन गया है| हमारे taste में इसे शामिल करना ही होगा वरना इस taste को हमारा नहीं कह सकते| कला मूल्यों को एक स्वर देती है , दर्जा देती है| कहानियों में मनोरंजन के साथ साथ आस्वादन भी होना चाहिए| Inclusive taste के लिए हमें कोई मेहनत नहीं करनी| एक संवेदनशीलता रखनी है, एक ऐसी फिल्म language के लिए जो सबसे बातें कर सके| सबकी रुचि समझ सके| मेरी के बजाए हमारी बात कह सके|